आमतौर पर जब भी चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच आ जाता है, तो इसे हम सूर्य ग्रहण कहते हैं। लेकिन अब वैज्ञानिक artificially सूर्य ग्रहण कराने जा रहे हैं। आप सोच रहे होंगे कैसे? क्या यह संभव भी है? आइए जानते हैं इस अद्भुत और साहसिक वैज्ञानिक प्रयास के बारे में।
ब्रह्मांड का रहस्य और सूर्य
हमारा ब्रह्मांड रहस्यों से भरा हुआ है। वैज्ञानिक एक रहस्य से पर्दा उठाते हैं तो नई पहेली उनके सामने आकर खड़ी हो जाती है। ऐसी ही ब्रह्मांड की एक पहेली है सूरज। यह ब्रह्मांड का वह हिस्सा है, जिसके बारे में अब तक काफी कम खोज हुई है। इसकी वजह है सूरज का अत्यधिक तापमान, जो हर चीज को राख कर देता है। लेकिन अब वैज्ञानिकों ने सूरज और इसके कोरोना का अध्ययन करने के लिए एक अनोखा तरीका निकाला है। इसे artificially सूर्य ग्रहण कहा जाता है।
artificially सूर्य ग्रहण कैसे होगा?
आमतौर पर जब चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच आता है, तो सूर्य ग्रहण होता है। लेकिन अब यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ESA) ने सूर्य का अध्ययन करने के लिए artificially सूर्य ग्रहण कराने की योजना बनाई है। ESA ने अंतरिक्ष में दो ऐसे स्पेसक्राफ्ट भेजे हैं, जो सूर्य के सामने आकर उसकी रोशनी को पृथ्वी तक आने से रोक देंगे। इस प्रक्रिया को artificially सूर्य ग्रहण कहा जा रहा है।
भारत का योगदान
artificially सूर्य ग्रहण कराने में यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ESA) की मदद भारत यानी इसरो ने भी की है। 5 दिसंबर को भारत के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से PSLV-C59 रॉकेट द्वारा प्रोबा-3 मिशन लॉन्च किया गया। यह वही मिशन है, जिसके तहत artificially सूर्य ग्रहण कराया जाएगा। इस मिशन के तहत दो स्पेसक्राफ्ट अंतरिक्ष में भेजे गए हैं, जो सूर्य के कोरोना का अध्ययन करेंगे।
प्रोबा-3 मिशन की कार्यप्रणाली
प्रोबा-3 मिशन के तहत दो स्पेसक्राफ्ट भेजे गए हैं:
- कोरोनाग्राफ स्पेसक्राफ्ट (CSC): यह सूरज की चमक को ब्लॉक करेगा।
- ऑकल्टर स्पेसक्राफ्ट (OSC): इसमें 140 सेमी व्यास वाली एक डिस्क लगी है, जो सूर्य की रोशनी को CSC पर नियंत्रित छाया डालेगी।
इन दोनों स्पेसक्राफ्ट को पृथ्वी से 60,000 किमी ऊपर अंतरिक्ष में स्थापित किया जाएगा। दोनों स्पेसक्राफ्ट एक-दूसरे से 150 मीटर की दूरी बनाए रखते हुए सटीक फॉर्मेशन फ्लाइंग (PFF) तकनीक का उपयोग करेंगे। इस दौरान एक मिलीमीटर स्तर तक की सटीक गणना की आवश्यकता होगी। इससे 6 घंटे तक आर्टिफिशियल सूर्य ग्रहण बनाया जा सकेगा, जिसमें सूर्य के कोरोना का गहन अध्ययन किया जाएगा।
सूरज के कोरोना का अध्ययन क्यों जरूरी है?
सूर्य की सतह का तापमान लगभग 5,500 डिग्री सेल्सियस होता है, जबकि इसके कोरोना का तापमान 10 लाख से 30 लाख डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। यह विरोधाभास वैज्ञानिकों के लिए एक बड़ा रहस्य है। वैज्ञानिक यह समझना चाहते हैं कि कोरोना सूर्य से इतना ज्यादा गर्म क्यों है। इस अध्ययन से सौर वातावरण, सौर हवाओं और सूरज के वास्तविक तापमान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकेगी।
क्या होंगे संभावित लाभ?
- सौर तूफानों की भविष्यवाणी: यह अध्ययन सौर तूफानों को बेहतर तरीके से समझने और उनकी सटीक भविष्यवाणी करने में मदद करेगा।
- ऊर्जा स्रोत की खोज: सूर्य के कोरोना की स्टडी से ऊर्जा के नए स्रोतों की जानकारी मिल सकती है।
- अंतरिक्ष विज्ञान में प्रगति: यह मिशन अंतरिक्ष विज्ञान में नई क्रांति ला सकता है।
- ग्रहों के वातावरण पर प्रभाव: सूर्य के अध्ययन से अन्य ग्रहों के वातावरण को भी बेहतर तरीके से समझा जा सकेगा।
इसरो और ESA का सहयोग
भारत और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ESA) का यह संयुक्त प्रयास अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि है। इसरो ने इस मिशन के लिए आवश्यक तकनीकी सहायता और लॉन्च सेवाएं प्रदान की हैं। प्रोबा-3 मिशन इसरो और ESA के बीच सहयोग का एक शानदार उदाहरण है।
क्या हो सकते हैं खतरे?
- सटीक गणना की चुनौती: PFF तकनीक के तहत सटीक गणना की आवश्यकता है।
- मिशन विफलता: तकनीकी खामी से मिशन विफल हो सकता है।
- अंतरिक्ष कचरा: इस प्रकार के मिशन अंतरिक्ष में कचरे की समस्या को बढ़ा सकते हैं।
निष्कर्ष
artificially सूर्य ग्रहण कराना एक साहसिक और क्रांतिकारी कदम है। यह मिशन न केवल सूर्य के कोरोना के रहस्यों को उजागर करेगा, बल्कि अंतरिक्ष विज्ञान में भी नई संभावनाओं के द्वार खोलेगा। भारत और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का यह संयुक्त प्रयास विज्ञान के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हो सकता है।
आशा है कि यह अध्ययन ब्रह्मांड के गहरे रहस्यों को समझने में सहायक होगा और मानवता को नए आयाम प्रदान करेगा।
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